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जब भी देखता हूँ आईना तो

जब भी देखता हूँ आईना तो, याद आ हि जाती मेरे बचपन की यादें ।
करता हूं खुद से एक सवाल, तो याद आ हि जाती मेरे बचपन की यादें. ।
वो दिन मेरे गाँव के वो दिन पीपल की छाँव के ।
वो दिन सावन के झूलों के वो दिन अनजानी भूलों के ।
वो गली में गिल्ली डंडा खेलना और पड़ोस के खिड़की दरवाजे तोड़ना ।
सुबह की ओस सावन के झूले खिलती धूप में तितली पकड़ना ।
माँ की घुड़की, पिता का प्यार रोते रोते हँसने लगना ।
हैं याद दशहरे के मेले वो चाट पकौड़ी के ठेले ।
कब सूरज को उगना देखा जाने कब उतरना ।
कब गांव से शहर आया और शहरी बनके रह गया ।
वोह माँ की ममता वोह पापा का प्यार ,रह गया अकेला ईस भीड़ में मेरे यार ।
जब भी देखता हूँ आईना तो, याद आ हि जाती मेरे बचपन की यादें ।
करता हूं खुद से एक सवाल, तो याद आ हि जाती मेरे बचपन की यादें ।
कविता:-विकास जैन

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